Tuesday, January 20, 2009

संचार

मित्रों अब मैं अपनी दोहरी मनःस्थिति से आपको अवगत कराना चाहता हूँ जिससे मैं कुछ महीनों पूर्व बड़ा आहात हुआ एवं एक सुखद अनुभूति के अंत तक पहुँचा।

किंचित, जीवन का है
बस येही स्वरुप,
की, एक पल को छाँव,
तो, वर्षों की धूप।


अगणित वर्षों की
सहकर तृष्णा,
घोर व्यथा,
विकल वियोग
मन की क्लान्तता,
विषय का राग,
सोया नहीं मैं,
पलभर भी,
इन कोटि पलों में
आलंभन ले,
स्मृतियों की,
मस्तिष्क की
विस्मृति
और आंखों में आग
बस ..........

लिया ये निर्णय,
नहीं करुँ अब
मोह कहीं मैं।
पर, पुनः ..........
एक पल में
छा गई यूँ
हरीतिमा,
सूखे छिउले से भी
उड़ गए नीलकंठ।
फूट पडी कोपलें,
फाड़ के
धरती का कोख,

आ गई पुनः,
राग,
लगता था की,
अंत हुआ,
एक सदी का,
की, एक अमोघ रात्रि का,
चह चहा उठे
स्वप्नखग,

और उनके कलरव से,
या की,
आशोदय से
बस, ऐसा की मैं,
चिरकालीन
गहन निद्रा से
अकस्मात ही,
गया हूँ जाग।

मित्रों मुझे बताएं की कैसी लगी ये कविता आपको.