Sunday, July 31, 2016

मुंशी प्रेमचंद जयंती

पहली बार जब हामिद से मिला तो बहुत छोटा था। चिमटा खरीदने की गहराई नहीं समझ सका। फिर एक के बाद एक, कई बार, बार बार उससे मिलता रहा। फिर जब होरी राम, हरखू और जबरा से आठवीं कक्षा में भेंट हुई तब हामिद की ज़रूरतपरस्ती और समझ का एहसास हुआ। तब मुंशी जी के क़लम का असली रंग समझ पाया। उन्ही दिनों गाँव के ठाकुर के कुँए से एक लोटा पानी निकालने की कठिनता भी समझी। क्या लेखनी थी। कितनी सरलता थी। भाषा इतनी सुन्दर और सहज कि आपको पंक्तियाँ दृश्यवत् आपकी आँखों के सामने घटित होती प्रतीत होंगी, और कब आप जबरा की गंध खुद भी महसूस करने लगेंगे, ये पता भी नहीं चलेगा।

इतना पढने के बाद भी, ये सोचता हूँ कि काश और लिखते मुंशी जी। आज दस पंद्रह छोटी मोटी कहानियां और पंद्रह बीस कविताएं लिख कर अपनी पुस्तक छपवा कर, अपनी सामाजिक और राजनयिक पैठ के जरिये रॉयल्टी खाने और करियर सेट कर लेने वाले लोग, मुंशी जी के संघर्ष, गरीबी और भूख जनित वास्तविक कथाकारिता कहाँ से सीखेंगे। उन्हें लेखनी की कृत्रिमता के एल इ डी रोशनी में डूबे हुए रहने की आदत है। जीवन के घरोंदे में वास्तविकता के द्वारों और वातायनों को खोल कर जीवन दर्शन के प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्कार कैसे हो। बस यही अंतर है प्रेमचंद और आजकल के रचनाकारों में....

इश्वर के भी दस बार अवतार हुए परंतु संभवतः अब ऐसी कालजयी रचनात्मकता का पुनरावतरन्, अब ना हो पाये।

मुंशी जी को शत्-शत् नमन्