जब था मैं,
एकाकी,
चहुँ ओर घिरा
तमान्ध
एकांत से,
जल रहा
कटु उपेक्षा के
धूप में,
आई तुम
जीवन में,
आशा ज्योत
लिये कर में,
छा गई छाया,
छू गई माया,
दे गई शीतलता,
तुम्हारी नेह-छोह।
अब मैं हूँ,
मण्डित
सद्यः आभाओं से,
मित्रता, प्रेम,
संबंधों और
आशाओं से,
अब जब तुम
कह रही हो,
अथवा
संकेत
दे रही हो,
कि,
अवसान है,
इस राग का,
हमारा तुम्हारा
देख लूँ मैं,
कोई और सहारा,
जब मुझे अब
हो चुकी है,
तुम्हारी लत
भावना उद्यत,
तब ही तुम
जा रहे हो,
क्यूं ऐसे
बतला रहे हो,
खींचती है
मुझे अज्ञात
शक्ति अथवा,
तुम्हारी ओर
कदाचित
तुम्हारा मोह।
ज्ञात है मुझे,
अतुलित असह्य
यह सत्य
कि
यही है
नियम सृष्टि का,
प्रलय ही है
लक्ष्य
अतिवृष्टि का
और
अंत है इस मिलन का
क्रूर
अमानवीय
अदैव बिछोह,
मानस पटल में,
गहन झंझा है
आशा दिवस की,
यही संझा है,
परंतु पुनः,
क्यूं,
है यह आभासित,
मानस-पटल पर,
है हो रहा कुछ उदित,
और सुनाई देती है,
दुंदुभी,
अथवा है यह,
कोई रणभेरी,
कैसा छिड़ा है
अंतःकरण में,
मेरे यह विद्रोह।
अथवा,
यह है कोई
युद्ध,
मेरा मन है,
स्व-विचारों से
बिद्ध,
अज्ञात है यह,
मुझे अनूठा
कि, है यह
मेरे
मस्तिष्क औ
मन का
मुझसे कोई द्रोह।
अथवा,
यह है
किसी पथिक की,
अथवा
किसी थके श्रमिक की,
सही पथ
अथवा
नवीन जीविका की
टोह,
अथवा,
तुम्हारा मोह।