Sunday, January 20, 2008

दास

आज मित्रों आपको आपनी नई कविता से परिचित करवाना चाहता हूँ , शीर्षक है 'दास'..................
विद्रुप सम नयन त्वया,
गहन उचछावास,
चिंता है अनिवार्य तुम्हारी,
किन्तु हे प्रिये न हो तुम निराश।

यद्यपि हूँ आज असफल मैं,
परन्तु लगा हूँ अथक-निरंतर,
कि बस कभी सफल हो जाये,
आब्की बार कि मेरा प्रयास।

आज बैठा हूँ यूं पिरोने,
स्मृतियों को बस एक सूत्र में,
परन्तु कोई स्मृति माणिक हो,
न टूटा,
बस यहीं भयाकुल मैं सुत्रास।

मस्तिष्क परिधि में स्मृति चाप,
कुंठित त्रिज्या ग्लानित व्यास,
बस इसी ज्यामिति को साध रहा,
मन में है अन्धकार का वास।

आज परिस्थितियाँ नहीं अनुकूल,
किन्तु कभी तो,.......... कभी भी तो,
होंगी व्यवस्थित जीवन में मेरे, वश में मेरे,
बना बैठा हूँ परिस्थितियों का दास.
क्षमा चाहूँगा जो इतने दिनों तक आपसे अलग रहा परन्तु यह पूर्ण रूपेण मेरा दोष नहीं है अपितु मेरी नियति ही संभवतः ऐसी थी। पिछले दिनों मैं कुछ इस तरह अशांत था कि बस मुझे खुद नहीं ज्ञात कि किस संसार में खोया हुआ था मैं। हाँ इतना अवश्य हुआ कि मैं शारीरिक और मानसिक दोनो तरह से असंतुलित हो गया.