Tuesday, December 11, 2018

मेरी कहानी

आज खुद से मिला. अजीब सा तार तार. सोचा मुठ्ठियों में समेट लूँ पर मैं था जो उंगलियों की दरारों से निकलता गया. जब तक संवार के एक जगह बनाई, तब तक पूरा ऊड चुका था, क्यूं? फिर याद आया की, यूं टुकड़ों में इस तरह निकल गया क्यूंकि मैने कई इच्छाएं बना ली थी. जैसे एक भक्त के 33 करोड़ भगवान होते हैं. फिर सोचा की एक भगवान चुन लूँ और साधना करूं। पर भगवान तो भगवान ठहरे। अब क्या करें? योग और साध् भी अहैतुक हैं। सोचता हूँ आत्म-बलिदान को, पर भक्ति के मार्ग में प्रेम होता है, भक्ति अनश्वरता है, नाश के ओर कैसे उन्मुख हो जाऊँ? ज्ञात नहीं पर निरंतरता कहीं विलुप्त हो गई है। 

चुप-चाप आँखें बंद कर लीं और लेट गया। दिल में अजीब सी उथल पुथल हो रही थी। लगता था भावनाओं के सागर में विचारों का तूफान मचा था और इन विचारों ने मंथन का ऐसा भंवर तैयार कर दिया था की बस मेरा अस्तित्व उसी में समाहित होता सा लग रहा था।
आँखों के गिर्द बस दृश्यों का ऐसा जाल सा बिछा था जैसे की दिमाग में पहुचने की हर दृश्य को जल्दी हो। पर मन को थोड़ा काबू किया और ध्यान केन्द्रित करने पर एक-एक करके सारे दृश्य क्रमवार आने लगे थे।