Saturday, January 26, 2019

कृष्णा सोबती.....स्मरिका

कल और परसों थोड़ा व्यस्त था। पर विश्वास करें  टी वी पर समाचार जरूर देखा था। गूगल पर भी देखा। कोई सुगबुगाहट तक नहीं देखी। शायद बहुतों को तो नाम भी पता ना हो(कथित, हिंदी के आधुनिक प्रवर्तकों को)।

एक और महान लेखनी की स्याही खत्म हो गई। एक और कविता पर पूर्णविराम लग गया। "अंधेरे की सूरजमुखी" मुरझा गई।"तीन पहाड़" मौन हैं। न जाने, "मुक्तिबोध" पुनः हो न हो। सोबती जी नहीं रहीं। और दो दिन बाद यह समाचार जान पाया। बहुत दुख हुआ।

शायद कोई छोटा सा यू ट्यूबर, अदना सा तुकबंदीबाज़ भी जाता है तो सुर्खियों में रहता है। आज ज्ञानपीठ पुरस्कृत, भारतीय भाषा साहित्य की गंगा जमुनी तहजीब  की एक धारा ऐसे चुप चाप चली गईं। बड़ा दुःखद है, भारतीय साहित्य का ऐसा अवसान।

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।

राहुल दत्त

कृष्णा सोबती (१८ फ़रवरी १९२५- २५ जनवरी २०१९ )

Thursday, January 10, 2019

स्व. श्री रविन्द्र कालिया की पुण्यतिथि पर

स्मृति से
2016-
सुबह सुबह अखबार के पहले पन्ने पर चार पंक्तियों का एक समाचार देखा। हृदय कचोट गया पढ़ कर। श्री रविन्द्र कालिया नहीं रहे। मृत्यु एक अवांछित नियति है पर हृदय के कचोटने का कारण वस्तुतः कुछ और ही था। हिंदी के इतने बड़े सुप्रसिद्ध कहानीकार और भारतीय ज्ञानपीठ के प्रमुख रहे व्यक्ति के निधन का हिंदी मीडिया में इतना छोटा उल्लेख। जहां आज हिंदी मीडिया का नेतृत्व करनेवाले टी वी चैनल और अखबार में त्रुटियों की भरमार होती है, उन भाषा के कथित ठेकेदारों से और अपेक्षा भी क्या है। आज हिंदी भाषा और साहित्य के निम्नतर स्तर पर आने का कारण भी यही है। आज की पीढ़ी हिंदी बोलना भी हीन समझती है और जो चाहते हैं उन्हें शुद्ध हिंदी भाषा का ज्ञान ही नहीं।

जबसे हिंदी साहित्य से जुड़ा, वागर्थ(हिंदी मासिक), ने बड़ा मार्गदर्शन किया। मेरे लिए तो ज्ञानपीठ का पर्याय उस समय श्री कालिया ही थे। नौ साल छोटी पत्नी, और ऐसी न जाने कितनी ही पुस्तकें और कथाएं। श्री कालिया एक लेखक ही नहीं, एक संयोजक भी थे।

मेरा नमन् उनको। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे।

श्री रविन्द्र कालिया(1-4-1939 से 9-1- 2016)