Sunday, August 2, 2020

साकार

घनी, अंधियारी निशा, जैसे तेरे केश,
स्वच्छ, रैखिक आकाशगंगा सम मांग,
मध्य निर्भीक धवल चंद्र, सम मुख
और चंद्र की उभारों के समान तेरे नाक- नक्श।

सुना था कोई लाल परी, चरखा काटती,
बैठी है चंद्र की कहानियों में,
तेरे अधरों की लाली, उसी का
आभास दिलाती है, विचारों में!

गिरें पलकें, सावन के मेघ घुमड़ते हुए,
दौड़े आते हों, पृथ्वी को अपनी आग़ोश में लेने
और उठें, तो जैसे स्वच्छ चाँदनी
फैली ही चारो ओर नील- सरोवर के।

मेरे मन का तूफ़ान, तेरी सांसो
के उतार चढ़ाव में झलके
जब मैं आऊँ तेरे पास और
संकोचवश जब तू, बंद कर ले पलकें।

तेरा चाँदी सा रंग, हो जाए गुलाबों सा
मुख हो जाए सघन रक्त
ज्यों सूर्य की प्रथम किरण
हिमालय के हिम् पर हो गई हो आसक्त।

इतना भी नहीं ज्ञात इस अज्ञानी को
की तेरे इस अप्रतिम सौंदर्य की सीमा क्या है,
मैं तो जब भी तेरे सन्मुख होता हूँ
मानो लगता है कि हर पलक के साथ
तेरा चेहरा एकदम नया है

मुझ मूढ़ को तो प्रेम की परिभाषा
तक का ज्ञान नहीं
मैं क्या करूँगा तेरे इस दैवीय सौंदर्य की उपासना
मुझे तो इन जड़-भौतिक संरचनाओं
की भक्ति तक का ज्ञान नहीं।

तुम यथार्थतः ही एक जीवंत चमत्कार हो
ईश्वर की परिकल्पना उन्हें साकारती है
तुम तो स्वयं ही इस निःसार जगत में
एकमात्र स्वतः साकार हो।