Wednesday, September 25, 2019

कर्ज़ की ये जिंदगी




कर्ज़ से भरी, कर्ज़ की ये जिंदगी,
मैं बस यूं ही जीता चला गया,
लोग आते गए, रिश्ते जुड़ते गए
और कारवाँ सा बनता चला गया।
जो भी मिला यहाँ, ये ही कहता था वो,
मेरी ज़िंदगी पर उसका, कर्ज़ है जो!
चुकाना पड़ेगा मुझे एक दिन
और में....
उन सभी का कर्ज चुकाता चला गया।
कुछ हमदर्द भी मिले यहाँ,
कहते कि, इतने कर्ज़ में भी मेरी जाँ,
बचत इतनी कैसे कर पाते हो तुम
कि, इतने दुखों में भी, कैसे मुस्कुराते हो तुम।
मैंने हँसकर कहा उनसे, यूँ ही सदा,
हँसी महज़ नहीं, बचत की एक निशाँ!
कमाई नहीं हैं हमने खुशियाँ इतनी,
पर हम ले आते हैं फिर से,
कर्ज़ की ये हँसी।
किसी ने ना बताया, कब दिया इतना कर्ज़,
बस करते रहे हमसे तगादे का अर्ज़,
हमने भी नहीं कि कभी जानने की ये कोशिश
बस चुकाते ही रह गए, सबके हिस्से का कर्ज।
ले कर ये उधार की हंसी, हम मुस्कुराते रहे,
और उसी उधार से, कर्ज़ चुकाते रहे,
लेकर सभी के आंखों के आँसू,
मैं सबके लबों पर हंसी देता चला गया,
मेरी ज़िंदगी पर था जाने कितना कर्ज़!
बस मैं सभी का कर्ज चुकाता चला गया
इस उम्मीद में, कि अगली ज़िन्दगी जियूँगा अपनी
मैं बस यूँ ही कर्ज़ में जीता चला गया।