Saturday, December 27, 2008

अपरिमित

मित्रों मेरी आगली कविता थोडी दार्शनिक सी होगी परन्तु मैंने इसे केवल बदलाव हेतु डाला है। यह कविता मेरी उन रचनाओं में से है जिन्हें मैंने मध्य रात्रि के पूर्व लिखा है, अन्यथा मैं साधारणतया मध्य रात्रि अथवा उसके बाद ही लिखने बैठता हूँ।
आशा है आपको अच्छी लगे। आपके प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।


निशांत में अशांत सा,
दिवस में भी है क्लांत सा,
प्रतिकार से अक्रांत,
वियोग से डरा हुआ,
है प्राण पर मारा हुआ,
पाद्हीन खड़ा हुआ,
लक्ष्य हीन चल रहा,
शीत में है जल रहा,
उड़ जाने को मचल रहा,
यह पखेरू प्राण मेरा,
बिद्ध हो ज्यों भीष्म सा,
पतित किंतु सभ्रांत सा।


अंतर्ज्योति जल रही,
श्वास अभी है चल रही,
इच्छाएं भी मचल रही।


क्षुधा वायस है जीवित अभी,
काक पिपासु, है अतृप्त अभी,
चढा है मोह की गर्दभी।

अलंकार अभी उतरे नहीं,
अहंकार भी गया नहीं
ज्ञात है की आयु शेष नहीं।

परन्तु ज्यों वेदान्त सा,
गतिमान है विभ्रांत सा,
मुखमंडल है कान्त सा,
काम में है रत हृदय,
नित उदित आशा सदय,
येही है मानव चरित अनंत,
अश्रव्य किंतु अश्रांत सा.

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