Saturday, December 27, 2008

मैं

मित्रों, यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में हमेशा घूमता रहता है की मैं कौन हूँ? क्या उद्देश्य है मेरा? बस इसी को शब्दों में पिरो कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

मैं तो एक आवाज़ हूँ,
शब्द हीन,संज्ञा हीन सा,
एक चीख की तरह,
जिसमें,
होता है समावेश,
विभिन्न भावों का,
हर्ष, विस्मय
विषाद, एवं हुंकार का,
परन्तु नहीं होती कोई
अभिव्यक्ति।

मैं तो एक संगीत हूँ,
प्रथामहीन, अंतराहीन
एक आलाप के सुर की तरह,
जिसमें,
होता है समावेश सप्त स्वरों का,
सा रे गा मा से
पुनः 'सा' तक
परन्तु नहीं होता कोई भी
व्यंजन।
मैं एक अंतहीन आकाश हूँ,
प्रकाश हीन, अस्पर्शी
एक व्यापक निर्वात सा
जिसमें है समावेश
विभिन्न आकाश गंगाओं का,
ग्रह- नक्षत्र एवं तारों की जगमग का
परन्तु नहीं होता कोई आपना प्रकाश
बस दृश्य हूँ, परावर्तित किरणों से।

मैं तो एक प्रकाश हूँ,
निरा श्वेत,
चटक हीन, दिव्य, ब्रह्मलीन सा,
एक श्वेत ज्योति पुंज की तरह
जिसमें होते हैं,
सातो रंग,
पराबैगनी से
अवरक्त तक
परन्तु नहीं होती
कोई भी चकाचौंध
बस श्वेताभ अँधेरा।

वस्तुतः आज भी
असमंजस में हूँ की 'हूँ क्या मैं'?


मानव देह में
एक श्लेष्मा की तरह
इस वृहत ब्रह्माण्ड का एक अंश
अथवा
एक उन्नत प्रजाति को
आगे बढ़ाने वाले
एक सूत्र का,
सूत्रांश।