Saturday, December 27, 2008

प्रतीक्षा

मेरा मन ही रहा,
नहीं संग आज मेरे,
छला गया नेह चित्तवन से तेरे,
रहा नहीं मेरा होकर भी,
पामर निज विश्वासी,
छा गए प्रेम मेघ अंधेर घनेरे।


परन्तु,
उस घने अंधेरे में,
छल गया व्योम मुझे,
बदल दिए प्रेम मेघ सब,
बरसा दी विकराल विरहाग्नि,
और,
जैसे हो गया अंत,
कल्पना रुपी हिमयुग का मेरे।

अब तो बस,
है यही प्रतीक्षा,
मन में है अनंत इच्छा,
की,
हो जाए शीघ्र,
अंत इस अमोघ रात्रि का,

अथवा,

यात्रा का अंत हो,

मुझ जीवन यात्री का,



फ़िर कलरव हो जीवन में मेरे,
फ़िर जागें हर्ष विहाग बड़े सवेरे।

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